काल-अकाल ख़ौफ़ ये छा'या,
जगभर में हाहाकार मचाया।
लगी तड़पने अब जीव काया,
गैर-जरूरी सब काज मिटाया।
अस्त व्यस्त को व्यस्त बनाया,
खोया जीवन अब थोड़ा पाया।
जब राज कोरोना का ये आया,
"आज़ाद" जरूरत को तरसाया।
प्रिय साथियों,
यह बात आप सभी को अजीब सी लग सकती है लेकिन वास्तविकता से ओतप्रोत होने की वजह से आप सभी से रुबरु करवाना मैरा कर्तव्य है, बात यह है कि देश और दुनियाभर में जितने भी महापुरुष हुये है उन्होंने अपने अन्वेषण, अनुसंधान और उनके समय की सामाजिक स्थिति का अवलोकन कर उसे अन्य समुदाय या समाज की संस्कृति से सकारात्मक रूप से परिचित करवाने के साथ-साथ सामाजिक संस्कृति में व्याप्त समकालीन कुरीतियों, समाज में फैली कुप्रथाओं, अंधविश्वास और सामाजिक जीवन यापन के तौर तरीकों में सुधार का प्रयास किया है।
चाहे वो महापुरुष हमारे देश के हो रहे हो या दुनियां के अन्य किसी देश के लेकिन उनका प्रयास एवं कार्य इसी दिशा में सार्थक और प्रभावी रहा है।
लेकिन वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा समाज में लायी गयी सुधारात्मक व्यवस्था और जन सामान्य के जीवनचर्या में प्रगतिशील विचारों के प्रभाव के कारण कुछ लोगों का व्यापार-व्यवसाय जो कि पूरी तरह से समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वास, पाखंड और कई प्रकार के भावनात्मक, अंधश्रद्धा आदि पर टिका हुआ था वो धीरे धीरे गर्त में जाने लगा।
धीरे-धीरे एक समयांतराल में ऐसे लोगो ने इन सभी उल्टे-सीधे कामों को सुचारू रूप से संचालित करने और समाज मे डर, ख़ौफ़ का वातावरण बनाने का काम जिसे सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप अपडेटेड भी कहा जा सकता है वो प्रारंभ कर दिया जन सामान्य की भावनाओं का इस्तेमाल नए तौर तरीकों से करना प्रांरभ किया जाता रहा है।
इसी तरह ये ये भी सामाजिक कुरीतियां, कुप्रथाएं, अंधविश्वास, जादू-टोना, झाड़-फूँक जैसी सभी असामजिक क्रियायें पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रही और समाज में जनसामान्य को लोभ-लालच, चमत्कार, भविष्यवाणी, दोष-निवारण आदि सभी प्रकार के असामाजिक व्यपारियो द्वारा जनित डर-ख़ौफ़ से वातावरण से अपने जाल में फंसा कर जकड़ा हुआ था।
क्योंकि इन सभी असामाजिक व्यापारियों को कभी भी इस चीज का आभास नहीं हो पाया कि कभी विश्व पटल पर एक ऐसा "ख़ौफ़नाक समाज सुधारक" जन्म लेगा जो समाज को, विश्व को, धरातल को युद्ध स्तर पर तहस-नहस करके समाज को बडे पैमाने पर सुधार देगा,
पता इसलिये नहीं था क्योंकि एक गलतफहमी हमेशा रही है कि जितने भी समाज सुधारक अभी तक रहे हैं वो सब मानव थे, उन्होंने हिंसा नहीं की, समाज को सुधारने के लिए व्यवस्थाओं को नहीं बिगड़ा, सामान्य जन-जीवन को प्रभावित नहीं किया, किया तो बस इतना सा की पैदा हुए अच्छे संस्कार प्राप्त किये, बुद्धि और विवेक का सही तरीके से इस्तेमाल किया, जीवन को समाज की भलाई के लिए लगाया, एक हद तक सुधारात्मक प्रयास किये और अंत में दुनियां से अलविदा हो गये तो असामाजिक व्यवस्था का बहुत ज्यादा कुछ नही बिगाड़ पाये ओर प्रथाएँ ज्यों की त्यों ही रही।
क्योंकि इस तरह का अमानवीय व्यवहार और असामजिक प्रथाएँ इसलिए फल फूल रही है क्योंकि असामाजिक व्यापारियों द्वारा जन-सामान्य को आकर्षित करने, डराने, दोष निकलने, चमत्कार का हवाला देने, व्यक्तिगत लाभ के लिये अन्य की बली देने, अज्ञानी ओर बुद्धि रहित स्वार्थी व्यक्ति को किसी रंग, कार्य, रूप, अभिनय विशेष के प्रयोग के आधार पर पूजनीय बना देने ये सभी परम्पराएं जीवित रखी और उसका प्रभाव जन सामान्य पर पड़ता रहा और सामान्य व्यक्ति से ये सब फल फूल कर परिवार, समुदाय, समाज, देश, वर्ण, आदि से गुजरता हुआ उच्च स्तरीय नेतृत्व की शरण में गया जहाँ से जन सामान्य का एवं उनकी भावनाओं का फायदा उठाकर राजनीतिक रूप से बढ़-चढ़ गया और जब बड़े ओहदों पर बैठे लोंगो ने इस प्रकार की व्यवस्था को सराहना योग्य स्तर पर प्रस्तुत किया तो उनके अनुयायियों ने ओर सामान्य लोगों ने इन्हें बड़े पैमाने पर जारी रखा।
देश-दुनियां में समाज को सुधारने का कार्य जिन महापुरुषों ने किया वो सभी किसी प्रकार से हिंसा के समर्थक नहीं रहे थे ना ही वर्तमान समाज सुधारक व्यक्ति हिंसा के समर्थन में है, चाहे आप किसी भी महापुरुष की जीवनी पर प्रकाश डाल कर देख सकते हैं।
राम, कृष्ण, ईसा, हज़रत मुहम्मद साहब, गुरू नानक, गौतम बुद्ध, कबीर, रहीम, तुलसी, डॉ. आंबेडकर, महात्मा गांधी, ज्योतिबा फुले, राजाराम मोहनराय, स्वामी विवेकानंद, दयानन्द सरस्वती, महावीर स्वामी, मदर टेरेसा, सावित्रीबाई फुले, डॉ एपीजे कलाम आदि सभी विश्व प्रसिद्ध चरित्र जो कि समाज में एक नई ऊर्जा के साथ आकर आजीवन समाजहित में कार्यरत रहे।
हमारी मानसिकता का गवाह हमारा इतिहास रहा है कि हमे अहिंसा या आसान और सीधे तरीके से कोई बात समझ नहीं आती है, और हमारी ऐसी मानसिकता रही है कि हमे तब तक कोई चीज से पीछा छुड़ाना नहीं आता जब तक कि उसने हमारा व्यक्तिगत नुकसान नहीं किया हो,
उदाहरण के रूप में -एम्बुलेंस के सायरन की आवाज को ही ले लीजिए उसका वास्तविक अर्थ हमें तब तक पता नहीं होता जब तक हम या हमारा निजी कोई एम्बुलेंस में घायल अवस्था में हो, फिर हम सड़क पर एम्बुलेंस के आगे आने वालों को कोसते हैं और शीघ्र रास्ता खाली करने को आपेक्षित रहते हैं, लेकिन जब हम किसी अन्य एम्बुलेंस के आगे अपनी गाड़ी लेकर आते हैं तो हमारे तेवर कुछ ओर ही होते हैं।
लेकिन समाज को सुधारने वाली कहानी में ट्विस्ट पिछले 2 वर्षों से दृष्टिगत हुआ, जब एक विश्वस्तरीय "ख़ौफ़नाक समाज सुधारक" कोरोनावायरस ने जन्म लिया और सभी तरफ जन जीवन को तहस-नहस कर दिया, पूरी दुनियां को अपने स्थान पर लघुचलित स्टेच्यू बनाकर कैद कर दिया और सारे अवगुण व दोष सभी को एक झटके में मिटा दिया और बहुत हद तक समाज को वास्तविकता से परिचय कराया।
लोक डाउन ओर अनलॉक में आप जब फिजूल-खर्ची पर काबू, बेवजह जगत-दर्शन के लिये घर के बाहर नहीं जाने, शादी समारोह में सीमित ओर खास लोग, किसी काम के लिए टिकिट लेकर अपनी बारी का इंतजार करने, जब जो समय पर मिल रहा है उसे खाने-पहनने की आदत, घर पर व्यायाम, रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने, बिना किसी छुए मिलने, अपनी जान बचाने के लिए नाक मुँह बंद करने, गांवों और शुध्द वातावरण की तरफ पलायन करने, रुठने के बाद भी घर छोड़कर नहीं जाने, ज्यादा से ज्यादा समय घर परिवार के साथ बिताने, अपने-पराये की पहचान करने, बड़े से बड़ा काफ़िला इकट्ठा करने की जगह जिससे जरूरत है उसको बुलाने, जाने, दूर-दूर तक मृत्यु भोज, बड़े-बड़े सम्मेलन, अनावश्यक आयोजन, सामाजिक दिखावा का नहीं दिखना और बस-रेल-जहाज सब को सीमित क्षमता में चलते देख आपको एहसास हो गया होगा कि मैं इसको "ख़ौफ़नाक समाज सुधारक" की संज्ञा क्यों दे रहा हूँ।
मैरा व्यक्तिगत मत है कि शायद देश और दुनियाभर के सभी समाज हित में कार्यरत लोग एक साथ आकर भी जनजागरण करते तो इतने कम समय में समाज के एक चौथाई भाग को भी अपनी बात नहीं समझा पाते और इस स्तर पर सामाजिक परिवर्तन होना नामुमकीन था।
इस महामारी से जो भी जन-धन की हानि हुई है वह क्षतिपूर्ति योग्य नहीं है लेकिन हमें इससे बहुत बड़ी सीख मिली है, जिसे हमें आगामी जीवन में सामाजिक हितार्थ कायम रखना चाहिए।
घर पर रहिये, स्वस्थ रहिये, सजग रहीये,जागृत रहिये।
जय हिंद, जय भारत!
भवतु सब्ब मंगलम......
आपका
डॉ. धनराज "आज़ाद"
प्रधान संपादक
नेक्सटजन इंडिया
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